महालिमोरूप:दीपावली व काली पूजा के साथ ही झारखंड के आदिवासी बहुल इलाकों में बंदना पर्व की धूम मच जाती है।
इस अवसर पर महालिमोरूप क्षेत्र के झारखंडी समाज के लोग बैलों की पूजा करते हैं। बंदना पर्व को लेकर महालिमोरूप क्षेत्रीय गाँव के ग्रामीण अपने घर-आंगन की साफ सफाई कर रंग-बिरंगी मिट्टी और प्राकृतिक रंगों से रंगाई करने में लग गए है।
कार्तिक माह के अमावस्या से तीन दिन पूर्व से ही अपने घर के पशु जैसे गाय, बैल, भैंस आदि के सींग में तेल लगाया जाता है और उन्हेंं सजाया जाता है। बांदना पर्व के पहले दिन यानी आमावस्या के दिन शाम को देहुरी गोधुली बेला में गठान टांड़ यानी जहां गांव के गाय-बैलों को एकत्र कर रखा जाता है, वहां जाते हैं। देहरी दिन भर निर्जल उपवास रहकर गठ पूजा करते हैं। गठ पूजा के बाद जिसकी गाय या बैल पूजा किए गए अंडे को फोड़ता है, उसका विशेष सम्मान किया जाता है। रात को उसी के घर से धिंगवानी का शुभारंभ होता है। रात भर ढोल, धमसा, मांदल के थाप पर अहिरा गाते हुए घर-घर जाकर गाय-बैल को जगाया जाता है।
गोहाल पूजा बांधना परब का अभिन्न हिस्सा है। इस दिन घर का एक पुरुष व एक महिला उपवास रहते हैं। घर-आंगन की साफ-सफाई के बाद महिलाएं चावल का गुड़ी कुटती हैं। फिर अलग से चूल्हा बनाकर उसे गाय के दूध से मिलाकर पीठा छांकती हैं। किसान घर के खेती-बाड़ी में प्रयोग होने वाले औजारों की पूजा घर के बाहर तुलसी ढीपा में की जाती है।
इसके बाद गोहाल यानी गोशाला में पूजा की जाती है। इस दौरान मुर्गा की बलि दी जाती है। इसके बाद चावल के गुड़ी को घोल कर चौक पूरा जाता है। इसमें सबसे पहले चौक के शीर्ष भाग में गोबर रखा जाता है। उसके ऊपर एक सोहराय घास देकर सिंदूर का टीका दिया जाता है। इसके बाद एक बछिया से उसे लंघवाया जाता है।
बांदना पर्व के दौरान पशुधन के अलावा कृषि यंत्रों को धान का मोड़ यानी मुकुट पहनाया जाता है। धान की बाली से बने मोड़ पहनाने के पीछे का उद्देश्य होता है कि जिस अनाज को जिन गाय-बैल व कृषि यंत्रों की बदौलत उपजाया गया है, उसे सबसे पहले उसी के सिर पर चढ़ा कर उन्हें समर्पित किया जाता है। शाम में घर के सभी गाय, बैल व भैंस के सींग पर तेल लगाया जाता है। महिलाएं उसे चुमान बंदन करती हैं।
बांदना परब के दौरान गोरुखूंटा के दिन घर आंगन की लीपापोती कर कुल्ही यानी गांव की सड़क से लेकर संपूर्ण आंगन में चौक पूरा जाता है यानी चावल के आटे की घोल से अल्पना बनाया जाता है। घर के सभी गाय, बैल, भैंस के लिए मोड़ बनाया जाता है। इस दिन भी पैर धोकर सभी गाय, बैल, भैंस आदि को तेल-सिंदूर देकर चुमान बंदन किया जाता है। फिर उसे खूंटा से बांधकर नचाया जाता है।
इसे ही गोरू खूंटान कहा जाता है। पारंपरिक बांदना व सोहराई गीतों के साथ लोग आकर्षक रूप से सजाए गए बैल व भैंसों को ढोल नगाड़ों की थाप पर नचाते हैं। इस दौरान सोहराय गीत गाकर ढोल नगाड़ा मांदर के साथ चमड़ा लेकर उसे आत्मरक्षा का गुण भी सिखाया जाता है, ताकि जंगल में हिंसक जानवरों से अपनी और अपने दल का रक्षा कर सके। इस दिन घर के मालिक और मालकिन उपवास पर रहते हैं।
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