हिमाचल प्रदेश राज्य के चम्बा ज़िले के भरमौर क्षेत्र में 4,190 मीटर की ऊँचाई परमणिमहेश झील स्थित है।इसी सरोवर की पूर्व की दिशा में है वह पर्वत जिसे कैलाश कहा जाता है। इस हिमाच्छादित शिखर की ऊंचाई समुद्र तल से करीब 5653 मीटर है।
अगस्त_सितंबर के दौरान पवित्र मणिमहेश झील हजारों तीर्थयात्रियों से भर जाता है।झील में पहला पवित्र स्नान कृष्ण जन्माष्टमी होता है । यहीं पर सात दिनों तक चल ने वाले मेला का आयोजन भी किया जाता है। यह मेला जन्माष्टमी के दिन समाप्त होता है। जिस तिथि को यह उत्सव समाप्त होता है उसी दिन भरमौर के प्रधान पूजारी मणिमहेश डल के लिए यात्रा प्रारंभ करते हैं।
कैलाश चोटी (5653 मीटर) के ठीक नीचे से मणीमहेश गंगा का उदभव होता है। इस नदी का कुछ अंश झील से होकर एक बहुत ही खूबसूरत झरने के रूप में बाहर निकलती है। पवित्र झील की परिक्रमा (तीन बार) करने से पहले झील में स्नान करके संगमरमर से निर्मित भगवान शिव की चौमुख वाले मूर्ति की पूजा अर्चना की जाती है। कैलाश पर्वत की चोटी पर चट्टान के आकार में बने शिवलिंग का इस यात्रा में पूजा की जाती है।
मणिमहेश कैलाश को "पंच कैलाशों" में से एक माना जाता है । कैलाश चोटी के नीचे एक बहुत बड़ा हिमाच्छादित मैदान है जिसको भगवान शिव के क्रीड़ास्थल 'शिव का चौगान' के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है कि यहीं पर भगवान शिव और देवी पार्वती क्रीड़ा करते हैं। वहीं झील के कुछ पहले जल का दो स्रोत है। इसको "शिव क्रोत्रि" और "गौरि कुंड" के नाम से जाना जाता है । गौरीकुंड माता गौरी का स्नान स्थल है। यात्रा करने वाली महिलाएं यहां स्नान करती हैं। यहां से करीब डेढ़ किलोमीटर की सीधी चढ़ाई के बाद मणिमहेश झील तक पहुंचा जाता है
चौरसिया मंदिर का नाम इसके परिसर में स्थित 84 छोटे-छोटे मंदिरों के आधार पर रखा गया है। यह मंदिर भरमौर या ब्रह्मपुरा नामक स्थान में स्थित है। पौराणिक कथाओं के अनुसार 84 योगियों ने ब्रह्मपुरा के राजा साहिल बर्मन के समय में इस जगह भ्रमण करते हुए आए थे। राजा बर्मन के आवभगत से अभिभूत होकर योगियों ने उनको 10 पुत्र रत्न प्राप्ति का आशीर्वाद दिया।
एक दूसरी धारणा के अनुसार एक बार भगवान शिव 84 योगियों के साथ जब मणिमहेश की यात्रा पर जा रहे थे तो कुछ देर के लिए माता "भरमाणी" देवी की वाटिका में रुके। इससे देवी नाराज हो गईं लेकिन भगवान शिव के अनुरोध पर उन्होंने योगियों के लिंग रूप में ठहरने की बात मान ली। कहा जाता है इसके बाद यहां पर इन योगियों की याद में चौरसिया मंदिर का निर्माण कराया गया। जबकि एक और मान्यता के अनुसार जब 84 योगियों ने देवी के प्रति सम्मान प्रकट नहीं किया तो उनको पत्थर में तब्दील कर दिया गया। भगवान शंकर ने माता भरमाणी को वरदान दिया कि मणिमहेश यात्रा पर आने वाले श्रद्धालुओं की यात्रा तभी पूर्ण होगी जब श्रद्धालु सर्वप्रथम माता भरमाणी के दर्शन करेंगे। भरमाणी में स्थापित " ब्रह्मकुंड" कुंड स्नान कर मणिमहेश की यात्रा पूर्ण मानी जाती है। कहा जाता है कि मणिमहेश यात्रा के लिए चौरासी मंदिर के दर्शन भी जरूरी हैं। 6000 फुट की ऊंचाई पर स्थित हड़सर से मणिमहेश के लिए पैदल यात्रा शुरू होती है।
हड़सर से मणिमहेश डल झील की दूरी 13 किलोमीटर है। मणिमहेश झील को "डल झील" के नाम से भी जाना जाता है। यह झील 4190 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है।
मणिमहेश में अष्ट्मी का मेला, भाद्रपद महीने में शुक्ल पक्ष की अष्टमी को लगता है, जिसे "राधा अष्टमी" भी कहते हैं। मणिमहेश यात्रा जन्माष्टमी से शुरू होकर राधाष्टमी के स्नान के साथ समाप्त होती है। इस दिन हजारों तीर्थयात्री पवित्र झील में डुबकी लगाने आते हैं, और भगवान शिव इस यात्रा के मुख्य देवता हैं।
मणिमहेश से जुड़ी मुख्य कथाएँ और किंवदंतियाँ
*शिव का निवास:
मणिमहेश को भगवान शिव का निवास स्थान माना जाता है, और इसके शिखर पर एक चमकता हुआ रत्न होता है, जो एक दिव्य प्रकाश उत्सर्जित करता है। यह माना जाता है कि भगवान शिव ने देवी पार्वती से विवाह के बाद मणिमहेश की रचना की थी, और पर्वत पर स्थित मणि को "शिव का रत्न" माना जाता है।मणिमहेश में कैलाश पर्वत के पीछे जब सूर्य उदय होता है तो सारे आकाश मंडल में नीलिमा छा जाती है और किरणें नीले रंग में निकलती हैं। मान्यता है कि कैलाश पर्वत में नीलमणि का गुण-धर्म है, जिनसे टकराकर सूर्य की किरणें नीले रंग में रंगती हैं।
*चरवाहे और भेड़ों की कहानी:
एक स्थानीय किंवदंती के अनुसार, एक गडरिये ने अपनी भेड़ों के साथ मणिमहेश पर्वत पर चढ़ने की कोशिश की. वह अपने झुंड के साथ एक गडरिये के पत्थर में बदल गया और मुख्य शिखर के आसपास की छोटी चोटियों को चरवाहे और भेड़ों के अवशेष माना जाता है।
*साँप की कथा:
एक और किंवदंती के अनुसार, एक साँप ने भी मणिमहेश पर चढ़ने का प्रयास किया, लेकिन असफल रहा और पत्थर में बदल गया.
*अजेय पर्वत:
माना जाता है कि मणिमहेश कैलाश अजेय है. जो भी इसे चढ़ने की कोशिश करता है, वह या तो पत्थर में बदल जाता है, या फिर भगवान के नाराज होने के कारण खराब मौसम के कारण फंस जाता है।
*धन्छो का झरना:
धन्छो झरने से जुड़ी एक और कहानी है। कहा जाता है कि भस्मासुर नामक राक्षस भगवान शिव को नष्ट करने के लिए उनके पीछे गया था। शिव छिपने के लिए झरने के पीछे एक गुफा में चले गए। भगवान विष्णु के हस्तक्षेप से भस्मासुर उस झरने को पार करने में असमर्थ रहा और मारा गया। तब से, लोग धनछो के झरने की पूजा करते हैं।
शिव चेलों द्वारा "डल तोड़ने की प्रथा", मणिमहेश यात्रा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जहाँ वे राधाष्टमी के पवित्र स्नान की शुरुआत करते हैं। त्रिलोचन महादेव के वंशज माने जाने वाले ये शिव चेले, डल झील की परिक्रमा करते हैं और फिर झील का जल बढ़ाना शुरू होता है, जिसके बाद भक्त डुबकी लगाते हैं और "चतुर्मुखी" शिवलिंग की पूजा करते हैं।